Svetaketu who started marriage among Hindu
श्वेतकेतु जिन्होंने हिंदुओं के बीच विवाह की शुरुआत की।
महाभारत में, श्वेतकेतु को "पति के प्रति वफादार रहने वाली पत्नी" की प्रथा बनाने का श्रेय दिया जाता है।
आचार्य श्वेतकेतु आचार्य अरुणिमा (ऋषि उद्दालक के नाम से भी जानते हैं) के पुत्र एवं आचार्य अष्टावक्र के भगीना थे। इनका काल राजा जनक के समय का है। राजा जनक के दरबार में एक बार इनके जाने का जिक्र ग्रंथों में मिलता है। महाभारत में एक कथा मिलती है कि एक बार आचार्य श्वेतकेतु जब वह बालक ही थे, अपने पिता आचार्य अरुणिमा से शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। शाम का समय था और उनकी माता भी उस वक्त उनके पास ही बैठी थी। इसी इसी बीच एक ब्राह्मण को आते एवं अपनी माता का हाथ पकड़ते हुए देखा।
उस ब्राह्मण ने आचार्य श्वेतकेतु की माता को अपने साथ चलने को कहा। उनकी माता उसके साथ रात बिताने को चली भी गई। यह घटना आचार्य श्वेतकेतु को काफी अपमान जनक प्रतीत हुआ। वो काफी क्रोधित एवं दुखी हुए। इस पर उनके पिता आचार्य अरुणिमा ने उन्हें बताया कि यही रीति है। स्त्री अपने पसंद के व्यक्ति के साथ समागम के लिए स्वतंत्र है। उस काल में विवाह एवं पति के प्रति वफादार रहने वाली पत्नी की प्रथा नहीं थी नहीं थी जो आज के संदर्भ में हम लोग समझते हैं। उस समय विवाह एक समझौता था।
भारतीय परंपरा में स्त्री पुरुष के पवित्र विवाह बंधन में विवाह सूक्त की रचना सूर्य-सावित्री से हुई है। विवाह अवसर पर पुरुष द्वारा स्त्री को प्रदान किये जाने वाले सात वचन और मंत्रोचारण की रचना हो जाने पर भी विवाह सम्बन्ध में अधिक सवेदनशीलता और पवित्रता के साथ साथ शुचिता को जोड़ा जाना अभी शेष था जिससे इस हार्दिक सम्बन्ध में प्रेम, अनुराग जैसे भाव प्रमुखता पा सकें। आचार्य श्वेत ने तब विवाह की मर्यादा स्थापित की जिसमें स्त्री का पतिव्रता होना तथा पुरुषों के लिए भी वैवाहिक नैतिकता का पालन करना अनिवार्य किया। कोई भी पुरुष किसी स्त्री पर कुदृष्टि ना डाले इसके लिए समाज को मर्यादा में बांधना अतिआवश्यक था। समाज में बौधिक और चारित्रिक नेतृत्व करने का दायित्व ब्राह्मणों का था इस लिए ब्राह्मणों को मर्यादित करना सर्वाधिक आवश्यक था तो इसका प्रारंभ ऋषि श्वेतकेतु ने ब्राह्मणों पर मर्यादा नियमो को आरोपित करके किया। दहेज जैसी कोई व्यवस्था इसमें नहीं थी। ऐसे भी किसी भी ऋग्वेदकालिक शास्त्रों में दहेज का उल्लेख नहीं है। हां, अथर्ववेद में उत्तर वैदिक काल में एक वहतु प्रथा के प्रचलन की चर्चा अवश्य है। लेकिन यह दहेज नहीं होता था। यह स्त्री के विदाई के वक्त उसके इस्तेमाल करने लायक वस्तु को देने से संबंधित था जो उसके दैनिक दिनचर्या से संबंधित था।
वहतु का वर्णन बाल्मीकि रामायण में मिलता है जो राजा जनक द्वारा राजा दशरथ के परिवार को उपहार स्वरूप दिया गया था। इसीको हिंदी अनुवाद में दहेज का नाम दिया गया है। स्वामी तुलसी दास ने भी रामचरितमानस में इस दहेज का बड़ा उदाहरण दिया है जो आधुनिक युग में इज्जत के प्रतीक के रूप में जन-मानस में घर कर गया। मूल बात यह समझने की है कि सनातन धर्म में यह नहीं पाया जाता। शिव विवाह में दहेज की चर्चा किसी भी शिव या शैव संबंधित शास्त्र में नहीं है। रूद्र संप्रदाय में दहेज़ एवं जाति जैसी प्रथा बिलकुल नहीं थी शिव भक्तों या शैवों के लिए दहेज लेना एवं देना अधर्मी होना माना गया है। ये पाप के भागी हैं।
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